पौष माह की पूर्णिमा पर शुक्रवार को छत्तीसगढ़ी लोक पर्व छेरछेरा मनाया गया। सुबह से ही बच्चे समूह में घर घर जाकर छेरछेरा मांगते नजर आए। गाँव में छेरछेरा ‘पौष पुन्नी’ के नाम से मनाया जाता है।
यह त्यौहार हर साल पौष माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है। लोगों की ऐसी मान्यता है कि इस दिन दान करने से घर में अनाज और धन की कभी कमी नहीं होती है।
गाँव के लोंगो का ये भी मानना है कि 3-5 साल के छोटे बच्चे जो कभी कभी परेशान करते हैं, जिसे छत्तीसगढ़ी में रेंदरेंदाहा या रोनाहा कहते हैं, ऐसे बच्चों को कर्रा लकड़ी की शाखा से या टहनी से आंकते हैं, जिसके बाद बच्चे छोटी- छोटी बातों पर रोते नहीं है।
इसके अलावा जो बच्चे तोतराते हैं, उन्हें भी पौष पूर्णिमा के दिन आंकने से यह तोतराना बंद हो जाता है, ऐसा कहते हैं।
ऐसे शुरू हुआ छेरछेरा त्यौहार
कौशल प्रदेश के राजा कल्याण साय ने दिल्ली में रहकर राजनीति और युद्ध कला की शिक्षा ली थी। वह करीब आठ साल तक राज्य से दूर रहे। शिक्षा लेने के बाद जब वे रतनपुर आए तो प्रजा को इसकी खबर लगी। खबर मिलते ही लोग राजमहल की ओर चल पड़े।
छत्तीसगढ़ के सभी राजा कौशल नरेश का स्वागत करने के लिए रतनपुर आने लगे। राजा 8 साल बाद वापस आए थे, इस बात से सारी प्रजा बहुत उत्साहित थी। हर कोई लोक-गीतों और गाजे-बाजे की धुन पर नाच रहा थे। राजा की अनुपस्थिति में उनकी पत्नी रानी फुलकैना ने 8 साल तक राजकाज संभाला था।
इतने समय बाद अपने पति को देख कर वह बहुत खुश थी।
उन्होंने सोने-चाँदी के सिक्के प्रजा पर लूटाना चालू किया। राजा कल्याण साय ने उपस्थित राजाओं को निर्देश दिए कि आज के दिन को हमेशा त्योहार के रूप में मनाया जाएगा, ऐसे सभी राज्य में सूचित कर दिया जाए;
यह शुभ अवसर हमेशा के लिए यादगार बना रहे और इस दिन किसी के घर से कोई खाली हाथ नहीं जाएगा।
एक और जनश्रुति है कि एक समय धरती पर घोर अकाल पड़ा- यह अन्न, फल, फूल व औषधि नहीं उपज पाई। इससे मनुष्य के साथ जीव-जंतु भी हलाकान हो गए। सभी ओर त्राहि-त्राहि मच गई। ऋषि-मुनि व आमजन भूख से थर्रा गए। तब आदि देवी शक्ति शाकंभरी को पुकारा गया।
शाकंभरी देवी प्रकट हुई और अन्न, फल, फूल व औषधि का भंडार दे गई। इससे ऋषि-मुनि समेत आमजनों की भूख व दर्द दूर हो गया। इसी की याद में छेरछेरा मनाए जाने की बात कही जाती है। ऐसे कहते है त्योहार के दिन शाकंभरी देवी हर माता में उपस्थित होती है।
छेरछेरा त्यौहार के दिन क्या होता है…?
इस दिन अगर आपके घर के आस पास “छेर-छेरा….माई, कोठी के धान ला हेर-हेरा” जैसा कुछ भी सुनाई दे तो हैरान होने की जरुरत नहीं, बस मुट्ठी भर अनाज बच्चों को दान कर देना है।
जब तक आप दान नहीं देंगे, तब तक वह आपके दरवाज़े से हटेंगे नहीं और कहते रहेंगे, “अरन बरन कोदो करन, जब्भे देबे तब्भे टरन”।
जो भिक्षा मांगता है, वो ब्राह्मण कहलाता है और देने वाला को देवी बोलते है। इस दिन लोग अपने-अपने घरों की देवी-देवता का भी पूजा पाठ करते है और महुआ दारू या मन्द भी तरपते हैं।
पूजा पाठ करते हुए
छत्तीसगढ़ी संस्कृति के जानकार व लोक कलाकार पुनऊ राम साहू बताते हैं, “छेरछेरा के दिन मांगने वाला याचक यानी ब्राह्मण के रूप में होता है, तो देने वाली महिलाएं शाकंभरी देवी के रूप में होती है। छेरी शब्द छै+अरी से मिलकर बना है।
मनुष्य के छह शत्रु होते है- काम, क्रोध, मोह, लोभ, तृष्णा और अहंकार है। बच्चे जब कहते हैं “छेरिक छेरा छेर बरतनीन छेर छेरा” तो इसका अर्थ है कि “हे बरतनीन (देवी), हम आपके द्वार में आए हैं। माई कोठी के धान को देकर हमारे दुख व दरिद्रता को दूर कीजिए।”
यही कारण है कि महिलाएं धान, कोदो के साथ सब्जी व फल दान कर याचक को विदा करते हैं। कोई भी महिला इस दिन किसी भी याचक को खाली हाथ नहीं जाने देती। वे क्षमता अनुसार धान-धन जरूर दान करती हैं।
गाँव के बच्चे धान और धन माँगने घर घर जाते है
पौष पूर्णिमा को गांव के लोग बाजा गाजा के साथ छेरछेरा मांगते हैं और छोटे बच्चे सुबह से झोला एवं चुरकी पकड़ कर, घर-घर जाकर छेरछेरा बोलते हैं। फिर बच्चों को धान या पैसा देकर विदा किया जाता है।
घर में भजिया, बड़ा चीला चौसेला एवं जलेबी, मेवा मिष्ठान आदि बनाते हैं और एक दूसरे को बांटते हैं, एक दूसरे के घर में खाना खाने भी बुलाया जाता है।
छत्तीसगढ़ की संस्कृति में छेरछेरा त्योहार अत्यंत महत्वपूर्ण और आनंदपूर्ण मनाया जाता है l
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