पुणे । एक बार फिर 1 हजार से ज्यादा बच्चे अनाथ हो गए। एक बार फिर अनाथ इसलिए हुए क्योंकि जिन्होंने इन अनाथ बच्चों को सहारा दिया था, उस सहारा ने आज इनसे हमेशा के लिए किनारा कर लिया । नहीं रही इन 1हजार बच्चों की मां।नहीं रही स्वार्थ भरे संसार में परमार्थ की बिंदू।नहीं रही ममता की सिंधु।…नहीं रहीं सिंधुताई सकपाल । पुणे के गैलेक्सी केयर अस्पताल में मंगलवार की रात उन्होंने अंतिम सांस ली। डेढ़ महीने से वे अस्पताल में भर्ती थीं। एक महीने पहले उनका हार्निया का ऑपरेशन हुआ था।आखिर में बड़े दिल वाली सिंधु ताई को दिल का दौरा पड़ा।
बड़े-बुजुर्ग कहा करते हैं कि ज़िंदगी लंबी नहीं, बड़ी होनी चाहिए
सिंधुताई सकपाल की ज़िंदगी लंबी भी रही और बड़ी भी रही।जब देश आजाद हुआ तो सिंधुताई सकपाल भी अपनी मां की कोख से 1947 में आजाद हुई। वर्धा के चरवाहे परिवार में जन्म हुआ था। लेकिन माता-पिता को तो बेटा चाहिए था। बिन मांगी मुराद को ‘चिंदी’ कह कर बुलाया गया। मराठी में चिंदी कपड़ों के उतरन-कतरन को कहते हैं। बचपन ऐसा बीता कि परिवार में किसी ने उन पर कभी प्यार नहीं लुटाया था, कली का जुर्म बस इतना था कि उसने दुनिया में आकर खिलखिलाया था। ऐसी बच्ची से माता-पिता को भी जल्दी से छुटकारा पाना था। सर का बोझ हटाना था।सो, 9 साल की छोटी सी उम्र में जो मिला, जिस परिवार का मिला, जैसा मिला उस व्यक्ति से शादी करवा दी।
हर अपने ने उन्हें ठुकराया, उन्होंने हर गैर को अपना बनाया
शादी हुई तब, जब उन्हें इसकी समझ नहीं थी।जब तक समझ आती, तब तक शादी टूट गई। लेकिन सिंधुताई सकपाल नहीं टूटी।ससुराल वालों ने घर से तब निकाला जब वे गर्भवती थीं।मायके के दरवाजे तो कब के बंद हो चुके थे।यहां से जो रास्ते खुले, उन रास्तों में बस कांटे ही कांटे थे।
उस वक्त सिंधुताई यहां-वहां से, जाने कहां-कहां से मांग-मांग कर अपना पेट भरा करती थीं।कई रातें भूख में लेट कर, जाग कर काटा करती थीं, आसमान को निहारा करती थी।रात को चांद रोटी जैसा दिखाई देता था। चांद के गड्ढे ऐसे लगते थे मानो रोटी कहीं-कहीं ज्यादा पक गई हो। भूख से जब नींद नहीं आती थी तो नींद के मीठे सपने नहीं, जागते हुए तपते सपने साए की तरह उनके साथ चलते थे।जो अकेली महिला खुद का पेट नहीं भर पा रही थी, वो आने वाले कल में हजारों के पेट भरने के सपने संजो रही थी।
जब अपना पेट नहीं भर पा रही थी, तब हजारों के पेट भरने के मंसूबे बना रही थी
जब सुबह-शाम-दिन-रात किसी के सपने साथ-साथ चलते हैं तो वे जरूर पूरे होते हैं।उनकी जरूरत वैसे भी बेहद कम थी।जीने के लिए ज्यादा की जरूरत भी नहीं होती है, एक साड़ी, एक वक्त का भोजन,बस इतनी हसरत होती है।तो जहां से जो मिला, जितना मिला बचत होती रही। सिंधुताई अपने सपने के साथ जीती रहीं।फिर उन्होंने पुणे में सनमति बाल निकेतन अनाथालय बनाया ।
जिन बच्चों को उनकी मांएं छोड़ दिया करती थीं, उन बच्चों की मां बनीं
जिन-जिन बच्चों की मांएं उन्हें छोड़ दिया करती थीं।उन-उन बच्चों की मां बनी सिंधुताई सकपाल।एक से दो, दो से तीन, तीन से बच्चे हुए हजार । 1200 से ज्यादा बच्चों में से कई बच्चों ने बड़े होकर समाज सेवा के संस्कार को आगे बढ़ाया और खुद का अनाथालय बनाया।माई’ अक्सर कहा करती थीं कि ‘मैं कितनी सौभाग्यशाली हूं देखो, मेरे एक-दो नहीं, हजार बच्चे हैं, जिनकी मां ने ही उन्हें चिंदी नाम दिया था, आगे चल कर उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री सम्मान दिया।700 से ज्यादा सम्मान मिला। वे बस चौथी पास थीं लेकिन डी वाई इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एंड रिसर्च, पुणे की तरफ से उन्हें डॉक्टरेट की डिग्री दी गई।
जब तक जिया तो बच्चों के लिए मरती रहीं, जब मरीं तो उन्हीं के लिए मांगी थी जिंदगी
संत सिंधुताई सकपाल जब जीती रहीं तो उन हजारों बच्चों की जरूरतों को पूरा करने के लिए दिन-रात मरती रहीं।जब मरने लगीं तो जीने की तमन्ना कर रही थीं, क्योंकि मन में सवाल था कि इन हजारों बच्चों का क्या होगा? लेकिन मौत तो चंठ और संत में भेद नहीं करती।वो तो सबकी जिंदगी में आती है।संत सिंधुताई सकपाल की जिंदगी में भी आई।लेकिन जाते-जाते भी वो यही कहती गईं, मेरे बच्चों का ध्यान रखना
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