जनजाति संस्कृति की अद्भुत मिसाल है भगोरिया हाट
भगोरिया हाट की शुरुआत राजा भोज के समय हुई थी। भील राजाओं कसूमर और बालून ने अपनी राजधानी भगोर में मेले का आयोजन शुरू किया था।

जब भारतीय संस्कृति की बात होती है, तो भगोरिया हाट (गलालिया हाट) का जिक्र आता है। यह केवल हाट नहीं, बल्कि समाज को जोड़ने वाला उत्सव भी है।
भारत में कई त्यौहार और परंपराएँ हैं, लेकिन भगोरिया हाट की अपनी अलग पहचान है। इस दौरान खान-पान की दुकानें लगती हैं, जिसमें काकणी और माजम की मिठाई प्रमुख होती हैं।
भारत की संस्कृति की आत्मा है जनजाति समाज
संस्कृति का पुनरुद्धार किसी राष्ट्र की ताकत और पहचान को आकार देने में अहम भूमिका निभाता है। यह समाज की परंपराओं और साझा अनुभवों को सुरक्षित रखता है।
जनजाति संस्कृति सरलता, प्रकृति-प्रेम और पारंपरिक मान्यताओं से समृद्ध है। यह समाज जंगलों और पहाड़ों में रहता है और प्रकृति को पूजनीय मानता है।

जनजातियों की अपनी विशिष्ट संस्कृति, परंपराएँ, रीति-रिवाज, खान-पान और रहन-सहन हैं। गोदना, शरीर पर टैटू बनवाने की परंपरा, उनके बीच काफी लोकप्रिय है।
भगोरिया हाट में विशेष रूप से युवक-युवतियाँ गोदना करवाते हैं। इसे सौंदर्य और स्थायी आभूषण का प्रतीक माना जाता है। यह परंपरा पीढ़ियों से चली आ रही है।
होली से सात दिन पहले मनाया जाता है भगोरिया हाट
रबी फसल की कटाई के बाद जनजातियों के लिए लगने वाले इस पारंपरिक हाट को भगोरिया हाट कहा जाता है। यह होली से सात दिन पहले आयोजित होता है।
ढोल-मांदल की गूंज और पारंपरिक लोकनृत्य इसकी खासियत हैं। जनजाति समुदाय बड़ी संख्या में भाग लेता है, जिससे यह आयोजन किसी मेले जैसा लगता है।

अब आसपास के शहरों से भी लोग यहाँ आने लगे हैं। यह मध्य प्रदेश के झाबुआ, अलीराजपुर, बड़वानी, धार, खरगोन आदि जिलों के गाँवों में मुख्य रूप से होता है।
बसंत के इस मौसम में भगोरिया हाट नई फसल की खुशी में आयोजित होता है। यह हाट न केवल उत्सव, बल्कि दैनिक आवश्यकताओं की खरीदारी का केंद्र भी है।
जनजाति महिलाओं और पुरुषों के पारंपरिक आभूषण
जनजातियों में आभूषणों का विशेष महत्व है। स्त्री-पुरुष विभिन्न गहने पहनते हैं, जो मुख्यतः कथिर, चांदी और कांसे से बने होते हैं। कथिर का प्रचलन अधिक है।
आज के दौर में जनजातीय आभूषणों को आधुनिक फैशन में अपनाया गया है। कमर में काले रंग का मोटा घाटा (बेल्ट) पहनना इनकी संस्कृति का हिस्सा है।

महिलाओं के पैरों में कड़ला, बाकड़िया, नांगर, तोड़ा, तागली, बिछिया उनके सौभाग्य के प्रतीक होते हैं। पुरुष बोहरिया, कंदोरा और कानों में मोरखी पहनते हैं।
भगोरिया हाट की शुरुआत
भगोरिया हाट की शुरुआत राजा भोज के समय हुई थी। भील राजाओं कसूमर और बालून ने अपनी राजधानी भगोर में मेले का आयोजन शुरू किया था।
धीरे-धीरे आसपास के अन्य भील राजाओं ने भी इसे अपनाया। इसी वजह से इन हाटों और मेलों को भगोरिया कहा जाने लगा।
अब यह एक बड़े उत्सव का रूप ले चुका है। इसे देखने के लिए प्रवासी जनजाति समाज भी लौटता है और बड़े धूमधाम से इसे मनाता है।
जनजाति संस्कृति का समावेश भगोरिया हाट में
भगोरिया हाट में जनजातीय संस्कृति की झलक देखने को मिलती है। युवक-युवतियाँ पारंपरिक वेशभूषा में आते हैं और भगोरिया का पूरा आनंद लेते हैं।
“झूले झूलना, पान खाना, बांसुरी बजाना और ढोल की थाप पर नृत्य करना इस उत्सव के मुख्य आकर्षण होते हैं। यह आयोजन बहुत ही रंगीन होता है।”
युवक-युवतियाँ पारंपरिक आभूषणों से सजकर हाट में शामिल होते हैं। यहाँ ढोल, बांसुरी और घुँघरुओं की ध्वनियाँ पूरे माहौल को संगीतमय बना देती हैं।

पुराने समय में संचार और यातायात के साधन सीमित थे। भगोरिया हाट के माध्यम से लोग दूर-दूर के परिवार और मित्रों से मिलकर आनंदित होते थे।
इस हाट में सभी जनजाति सज-धजकर आते हैं। भारी भीड़ होने के कारण यह किसी मेले जैसा लगता है, जिसे पूरे उत्साह के साथ मनाया जाता है।
दिनभर मांदल की थाप और बांसुरी की धुन पर जनजातीय लोकनृत्य किए जाते हैं। इस दौरान ताड़ी (देशी शराब) का भी भरपूर सेवन किया जाता है।
लेख
निलेश कटारा
माध्यमिक शिक्षक
ग्राम मदरानी, तहसील मेघनगर, जिला झाबुआ, मध्य प्रदेश

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